जन्नत की दहलीज़ पर खड़े होके,
क्षितिज पर पड़ी परछाई देख,
उसने सोचा मैं हूँ....
बस परछाई ही है मेरी,
मैं तो दोज़ख़ से हाथ बढ़ाए ,
छूने की कोशिश में हूँ तुझको...
कि शब्द सिसकते हुए पहुंचे तेरे पास,
ओर इधर खीच लाये तुझे,
बचाने मेरी रूह को,
ओर तेरे काँधे पर सर रखके,
सो जाऊं मैं,
आँख खोलू,
तो दोनों बिस्तर पर हो,
रजाई में सिमटे हुए से,
ओर तेरी आँखों में कैद सपने हो,
बस मेरे!
क्षितिज पर पड़ी परछाई देख,
उसने सोचा मैं हूँ....
बस परछाई ही है मेरी,
मैं तो दोज़ख़ से हाथ बढ़ाए ,
छूने की कोशिश में हूँ तुझको...
कि शब्द सिसकते हुए पहुंचे तेरे पास,
ओर इधर खीच लाये तुझे,
बचाने मेरी रूह को,
ओर तेरे काँधे पर सर रखके,
सो जाऊं मैं,
आँख खोलू,
तो दोनों बिस्तर पर हो,
रजाई में सिमटे हुए से,
ओर तेरी आँखों में कैद सपने हो,
बस मेरे!
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