Friday, May 28, 2010

Paulo and me

रेत से घर नहीं बनते,
बस ख्वाब बनते है,
औत उचकते समुंदर में खो जाते है रात में|

उसमें सूखे पत्तो के दरवाज़े,
जागते सूरज में रंग भरते हैं|

Ice cream के wrapper से बना रास्ता
सिर्फ एक कुचला हुआ
पल बनके रह जाता है |

हर शाम,
तेरे मेरे पैरो के निशान,
और काई निशानियों के बीच खो जाते है|

फिर भी अगली शाम,
हम दोनों बैठते है,
उसी दुश्मन समुन्दर के किनारे|
उसे challenge  करके कहते है
"आज और बड़ा घर बनाएँगे,
इतना बड़ा कि,
उसकी देहलीज़ न छू सकेगा तू" ...
और जुट जाते है,
अपने नन्हे हाथों में,
एक लकड़ी का टुकड़ा लिए |
एक नया सा कोई ख्वाब,
एक नयी याद बनाने |

4 comments:

delhidreams said...

और यूँ ही बनते बिगड़ते ख्वाबों के बीच, ढूंढते रहते हैं हम ज़िन्दगी.

delhidreams said...

wud u pls like to check my blog :P

Chaila Bihari said...

this is crying out for a tune. com'on do it

Aparna Mudi said...

@Chaila Bihari, maybe i should invoke pancham da, only he has the talen of giving tune to non lyrical poetry