बहुत साल पहले,
वृन्दावन की गलियों में,
एक दुकान के ताक पर,
चढा बैठा था!
ठीक उसही तरह ताक-झांक करता,
जैसे माखन चुराने के लिए,
वो औरो को sentry duty पर
लगाया करता था, बरसो पहले|
मैंने कहा,
"मुझे चाहिए,
खूब ख्याल रखूँगी इसका,
अपने बच्चे सा!"
"रोज़ सुबह उठाऊंगी, नहालाउंगी, बताशे खिलाऊँगी,
हर साल नए कपड़े दूँगी,
इतना प्यार तो शायद
यशोदा ने भी न किया होगा |"
एक सिंघासन लिया,
कुछ कपड़े,
सोने के लिए
एक छोटा सा,
गोटे वाला सिरहाना|
अपनी आँखों से तब बोलता था,
नए घर में जाने कि ख़ुशी,
छलक के गिरती थी|
शाम को बाती और धूप की सुगंध में,
सूरज के साथ वो भी सो जाता,
अपने नन्हे से बिछोने में,
सुबह उठता था,
शंख कि आवाज़ के साथ |
नखरे सहती थी इसके,
कभी नए कपड़े,
तो कभी सर्दी में रात को चादर ओढ़ाना,
कभी चॉकलेट, मिठाईयों कि फरमाईश |
आज दस साल हो गए इस बात को!
अब रात दर रात,
इंतज़ार करता रहता है |
कभी तो देखूं इसकी तरफ,
कभी पूछ लूं कि सब कैसा है |
कभी रोऊँ इसके पास बैठकर,
बार बार पूछूं कि कब मुझको भी,
अपने नन्हे हाथों से लिपट लेगा |
कब थामेगा मेरा हाथ भी अपने जादू भरे प्यार से |
अब उसके नखरे मुझे
अपने बनाये हुए illusions लगते हैं |
उसके लिए मेरा प्यार एक व्यर्थ चेष्टा |
उसकी वो रोशन आँखें,
बस वृन्दावन कि रौशनी का खेल |
शायद बहुत देर हो गयी है,
शायद अब मुझे आस नहीं,
यशोदा सा,
वो मुझे भी 'माँ' कहे,
शायद मैं उसे कभी इतना प्यार कर ही न पायी |
पर जब किया था,
पूरे मन से किया था,
सबसे ज्यादा,
एक छोटे बच्चे सा |
बस ये नहीं समझी थी,
कि वो मुझसे भी छोटा है |
अभी तक अपनी जिद पे अड़ा है |
2 comments:
आपकी कविताओं में बात तो है!
कहीं कुछ औघड़ भी है, पर वैसा जैसे कि पानी तो मज़ेदार हो पर बताशे कहीं-कहीं टूटे रह गए हों.
पानी का जायका तो फिर भी कहीं नहीं गया... बात तो है.
shukriya satyavrat!!!
nice to see someone actually still reads my blogs!!
:D
your comment really made me feel great!
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