शब् गिरा है मेरे हाथों में.
जाने क्यों सोचता है बार बार
के बिना लब चूमें ही चला जाऊँगा मैं इस रोज़...
तेरी हर नफ़स मेरी मुट्ठी में बंद करके,
ले जाता हूँ मेरे ही कोट के जेब में |
बसों के सीटों में, ट्रेनों के भीड़ में, हर जगह
फैलती जाती है तेरी खुशबू...
बस उसी खुशबू का पीछा करते करते
लौट आया करता हूँ शाम को |
जाने क्यों घबराता है तु सपनो में भी,
कि इस रोज़ लब चूमके नहीं जाऊँगा |
शॉल कि तरह लपेटे रहता हूँ दिनभर इनको होठों से.
दिन भर गुनगुनी सी रहती है धूप |
image (C) copyright: aparna mudi
Canon Digital A550
3 comments:
that was GUUUUUUD
Thank you Pradip... glad you liked it...
Nice poetry ...
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