Tuesday, December 14, 2010

suraj

हर रात रुक जाती हूँ मैं यही आके,
हर रात बैठती हूँ इसी पेड़ के नीचे,
Right outside my house in Delhi, Dec 2010
कापते पत्ते मेरे पैरों के आस पास आके,
गरम होने कि कोशिश करते हैं|

हर रात उनसे मैं दिन भर का दुखड़ा कहती हूँ,
और वह जाड़े की शिकायत करते हैं,
थोड़ी सी धुंध खाते हैं, थोडा शब् पीते हैं,
फ़िर रुकते हैं, राह देखतें हैं उसका|

वह आये, तो नज़र भर देखके ही,
आँख मूंदु...
के रूठ के बैठा है जाने कब से,
कल आये न आये|

मेरे दोस्त बैठके अपने में,
मेरा ठट्ठा उड़ाते हैं|
मैं वही लेट जाती हूँ... समुन्दर ओढ़ के...

कल तड़के ही उठाना है,
नहीं तो सारा दिन बादल कुछ नहीं करने देगा,
मेरा मज़ाक बनाएगा...
के चाँद बस अब नींद में ही चूमता है मुझे...

image (C) copyright: aparna mudi
nokia 7210 , supernova